Friday, September 30, 2011

हिन्दी व्याकरण


हिन्दी व्याकरण

हिन्दी संस्कृत की उतराधिकारिणी है । वर्णमाला , उच्चारण और लिपि देवनागरी , जो ब्राह्मी का विकसित रूप है , वही है जो संस्कृत का है ।
संस्कृत भाषा संयोगात्मक थी , पर हिन्दी वियोगात्मक हो गयी । संस्कृत के एक धातु से 6 ( प्रयोग ) 10 ( काल ) X 3 ( प्रसंग ) X 3 ( लिंग )  = 540 भिन्न रूप बनते हैं । हिन्दी क्रिया मे तीन काल ( वर्त्तमान , भूत , भविष्य ) तीन अर्थ ( निश्चय , आशा , सम्भावना ) तीन अवस्थाएँ ( सामान्य , पूर्ण , अपूर्ण ) तीन वाच्य ( कर्तृ , कर्म , भाव ) और तीन प्रयोग ( कर्तार , कर्मणि , भावे ) मिलते हैं ।

व्याकरण
‘ व्याकरण ‘ का शाब्दिक अर्थ है – ( व्या = व्याख्या : करण = करना ) व्याख्या करना , किंतु यहाँ तात्पर्य केवल भाषा की व्याख्या है , साहित्य या किसी अन्य वस्तु की नही । महर्षि पतंजली ने अपने महाभाष्य मे कहा है – ‘ लक्ष्यलक्षणे व्याकरणम् ‘ । अर्थात् भाषा को अनुशासनबद्ध करने वाले नियम और उदाहरण के समुदाय का नाम व्याकरण है । तात्पर्य , व्याकरण भाषा सम्बन्धी शास्त्र है और किसी भी भाषा के परिष्कार एवं संस्कार के लिये इसकी नितांत आवश्यकता है । इसके बिना किसी भी भाषा को स्थिर और परिनिष्ठित रूप नहीं दिया जा सकता । 
व्याकरण का विभाग
व्याकरण भाषा का शास्त्र है और भाषा का मुख्य अंग वाक्य है । वाक्य शब्दों से बनता है और शब्द का आधार वर्ण ( मूल ध्वनियाँ ) हैं । अतएव , विवेचन की दृष्टि से व्याकरण के मुख्य तीन ही विभाग किये जा सकते हैं –
1)      वर्ण विचार – इसके अंतर्गत वर्णों के आकार , प्रकार , भेद , उच्चारण और उनके मेल से शब्द निर्माण के नियम दिये जाते हैं ।
2)      शब्द विचार – इसके अंतर्गत शब्दों के भेद , रूपांतर और व्युत्पत्ति का वर्णन रहता हैं
3)      वाक्य विचार – इसके अंतर्गत वाक्यों के विभिन्न अवयवों का पारस्परिक सम्बन्ध तथा शब्दों से वाक्य बनाने के नियम दिये जाते हैं ।

हिन्दी – व्याकरण संस्कृत – व्याकरण पर आधारित है , फिर भी इसमें कुछ मौलिक तथा आधारभूत सिद्धांतों की उद्भावना हुई है । संस्कृत व्याकरण पर आधारित होने पर भी कहीं कहीं मार्ग भेद भी हैं । मार्ग भेद भी वहीं हुआ है जहाँ हिन्दी ने संस्कृत की अपेक्षा सरलतर मार्ग ग्रहण किया हैं ।   

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