Wednesday, November 23, 2011

कर्म , ज्ञान और योग ( गीता जैसा मैने समझा )

        धर्म पर चर्चायें तो बहुत हो चुकी हैं और मैने  अक्सर अपने आप से ये कहा हैं कि धर्म सिर्फ इतना ही हैं कि देश काल समय और  परिस्थितियों के अनुसार जो कुछ भी करना उचित हो उस समय का वही धर्म हैं  और यथोचित कर्म और व्यवहार करना ही धर्म पालन । दुसरे शब्दों मे कहें तो  आपका कौन सा कर्म और व्यवहार कब धर्म और कब अधर्म कहलायेगा ये निर्णय  सिर्फ काल ही निर्धारित कर सकता हैं । कर्म निरपेक्ष हो तो उसका कोई अर्थ  नही हैं । कर्म जब काल या समय के साथ जुड़ता है तभी उसका कुछ निहितार्थ हो  सकता हैं । योग का अर्थ हैं जुड़ना या समत्व । जब कोई भी चीज किसी दुसरी  चीज से जुड़ कर समता पर आती हैं तो यही योग कहलाता हैं । सामान्य व्यक्ति भी ये बात जानता  हैं कि सही जोड़ के लिये सही मिलान के लिये दोनो को समतल यानि कि leval  होना कितना जरूरी हैं । अर्थात कर्म का काल से योग, जिससे उसका कोई अर्थ  निकले,  कर्मयोग हैं । तो अब बात कितनी सरल हो गयी की सही समय पर किया  गया कर्म धर्म और कुसमय किया गया कर्म अधर्म ।

वृक्ष और हम


बेटी के स्कूल मे एक बडा पेड़ काटा गया हैं जो संभवतह सूख गया था । पर मेरी पांच साल से कुछ बड़ी बेटी के लिये तो ये पहला ही अनुभव था । आज सुबह स्कूल छोड़ते समय वो बोली '' पापा आपको पता है हमारे स्कूल मे पेड़ काटा गया हैं , आज एक कटा फिर दूसरा कटेगा बाद मे सारे पेड़ कट जायेंगे और हमारा स्कूल नंगा हो जायेगा .... हा हा हा ! '' मैं स्तब्ध हो गया और उसकी शक्ल देखने के सिवा कुछ नही बोल सका !

Friday, November 18, 2011

शिव तांडव स्त्रोत्रम्

जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थलॆ
गलॆवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम् ।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं
चकार चण्डताण्डवं तनॊतु नः शिवः शिवम् ॥ 1 ॥

जटाकटाहसम्भ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी-
-विलॊलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि ।
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावकॆ
किशॊरचन्द्रशॆखरॆ रतिः प्रतिक्षणं मम ॥ 2 ॥