Wednesday, November 23, 2011

कर्म , ज्ञान और योग ( गीता जैसा मैने समझा )

        धर्म पर चर्चायें तो बहुत हो चुकी हैं और मैने  अक्सर अपने आप से ये कहा हैं कि धर्म सिर्फ इतना ही हैं कि देश काल समय और  परिस्थितियों के अनुसार जो कुछ भी करना उचित हो उस समय का वही धर्म हैं  और यथोचित कर्म और व्यवहार करना ही धर्म पालन । दुसरे शब्दों मे कहें तो  आपका कौन सा कर्म और व्यवहार कब धर्म और कब अधर्म कहलायेगा ये निर्णय  सिर्फ काल ही निर्धारित कर सकता हैं । कर्म निरपेक्ष हो तो उसका कोई अर्थ  नही हैं । कर्म जब काल या समय के साथ जुड़ता है तभी उसका कुछ निहितार्थ हो  सकता हैं । योग का अर्थ हैं जुड़ना या समत्व । जब कोई भी चीज किसी दुसरी  चीज से जुड़ कर समता पर आती हैं तो यही योग कहलाता हैं । सामान्य व्यक्ति भी ये बात जानता  हैं कि सही जोड़ के लिये सही मिलान के लिये दोनो को समतल यानि कि leval  होना कितना जरूरी हैं । अर्थात कर्म का काल से योग, जिससे उसका कोई अर्थ  निकले,  कर्मयोग हैं । तो अब बात कितनी सरल हो गयी की सही समय पर किया  गया कर्म धर्म और कुसमय किया गया कर्म अधर्म ।
       
आप अपनी जिन्दगी मे बहुत सी चीजे सीखते और जानते  है आपके दिमाग मे कई तरह की सूचनाओं का संग्रह भी होता रहता हैं । यदि  उपयुक्त समय पर आप यदि उपयुक्त जानकारी का उपयोग कर लेते हैं तो यही आपका  ज्ञान कहलाता हैं ।  तालाब या नदी मे गिर जाने पर आपके सायकिल चलाने के  ज्ञान का कोई महत्व नही है  वहाँ तैरने का ज्ञान ही आपकी रक्षा कर सकता  हैं । सही जानकारी का सही समय के साथ योग ही ज्ञानयोग कहलाता हैं । 

      आपकी ईन्द्रियाँ आपका बिभिन्न काम और उसका अनुभव  करने के लिये बनी हैं । मन का योग जिस ईन्द्री के साथ होता है आप उस भोग  का आनन्द ले सकते हैं । यदि आप कुछ भी कर रहे हों तो मन यदि साथ ना दे तो  आप उस काम को नही कर पायेंगे । मै एक दिन कम्प्युटर पर कुछ महत्वपूर्ण  काम कर रहा था । एक मित्र बाहर से आवाज पर आवाज दिये जा रहा था पर मै सुन  नही पा रहा था । जब वो पास आ कर हिला कर बोला तो उसकी आवाज सुनाई दी । अब मै बहरा हो गया था एसा तो नही था कान बिल्कुल ठीक थे पर फिर भी मै क्युँ  सुन नही पाया ? जबाब सिर्फ एक ही हैं तब मेरा मन मेरे कान के साथ नही था  बल्कि जिस काम मे लगा था वहाँ व्यस्त था । मतलब कान के सभी गुण रहने के  बाद भी सिर्फ मन का योग नही होने से मैने उस क्षण बहरे की तरह व्यवहार  किया था । अब सीधा गणित ये कहता हैं कि सभी ईन्द्रियों को अलग अलग साधने  कि बजाय यदि सिर्फ मन को साधा जाय तो सभी ईन्द्रियाँ एक साथ ही सध  जायेंगी । और सभी योगस्थ हो जायेंगी और समाधि की अवस्था अनायास ही  प्राप्त हो जायेगी । मतलब योगी वह नही हुआ जो सब छोड़ कर वन चला जाय वरन  असली योगी वह हुआ जो अपने मन और अपनी ईन्द्री के सही योग से उस ईन्द्री  को सम्पूर्ण रूप से भोग सके ।                   
                ....................  अश्विनी कुमार तिवारी ( 23.11.2011 )

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