Wednesday, December 24, 2014

गाँव :- एगो सपना



         गाँव :- एगो सपना
रामचरन : -
ए भकभेलरा ! तनी बतावते गाँव घर के हाल ।
खेत पथारी कईसन बाटे का काका के हाल ॥
गाछ विरिछ गोरू बछरू और पनघट के हाल ।
खेलत होईहें लईके लईकी का बा सब खुसहाल ॥

बड़ा मन करेला हमके फेर छोट होई जईंती ।
खुब चुभकतीं पोखरा में आ खेलत पढ़े जईंती ॥
झुठ बोल के भागल करतीं स्कूलवा से रोज ।
और घुस के खुब चोरा के गन्ना चाभल करतीं ॥

Tuesday, December 23, 2014

--------------------- मैथिली -------------------



---------------------         मैथिली     -------------------

मैथिली सन मीठ मधुकर , के भी नञि छयि मधु रे ।
नञि रसालक रस ओते , बस माय के छयि कोड़ रे ॥
मैथिली सन प्रीत नेहगर , नञि छयि प्रिया के प्रीत रे ।
नाहि भौतिक नाहि आत्मिक , नाहि स्वर्गक वास रे ॥
मातृभाषा केँ बिसरि , जँ चाहबै उन्नति करी ........ ।
आत्मा के शांति मन के , नञि बचत किछु पास रे ॥

         ........... अश्विनी कुमार तिवारी ( 23/12/2014 )

Friday, December 19, 2014

आओ तुझको सुनाऊँ .....



      आओ तुझको सुनाऊँ .....

आओ तुझको सुनाऊँ , मैं कविता प्रिये ।
जिसमे छवि हो तुम्हारी निखरती प्रिये ॥

भोर की लाली  सिन्दूरी  थोड़ी लिए ,
रात की चाँदनी  सी  चमकती हुई ।
रात रानी की खुशबू सा मँहका हुआ ,
दिव्य ज्योती सा तेरा वदन हैं प्रिये ॥

Saturday, December 13, 2014

गाँधी और कृष्ण

    
          गाँधी और कृष्ण दोनो की तुलना पर तो पुस्तक लिखी जा सकती हैं । सर्वप्रथम दोनो को समान स्तर पर ले आना होगा तुलना के दृष्टि से । कृष्ण तो भगवान हैं और वो किसी भी रूप मे स्वीकार्य हैं अतः उन्हे ही ऐतिहासिक मानव मानते हुए गाँधी के सामने रखते हैं क्षमा सहित सिर्फ तुलनात्मक विचारों को प्रतिष्ठित करने हेतु । 
            दोनो का सम्बन्ध कारागार से था - एक का जन्म से दूसरे का कर्म से । दोनो का सम्यक विकास अपने जन्मभूमि से दूर हुआ - एक का गोकुल , बृन्दावन और द्वारिका और दूसरे का अफ्रिका में । दोनो ही अपने देश ,

Sunday, September 14, 2014

हमारी राजभाषा हिन्दी भाग 4



हमारी राजभाषा हिन्दी भाग 4

पाँच कोस पर वाणी बदले दस कोस पर पानी   एक प्रसिद्ध कहावत ! भारतवर्ष की भाषाई , सामाजिक और भौगोलिक बिबिधताओँ को एक वाक्य में दर्शाने वाला वाक्य । यह कहावत यह भी कहता हैं कि भारत की समरसता और विकास की कुँजी कभी भी एकरसता नही हो सकती । बिबिधता के साथ समरसता हीं भारत के सम्यक विकास की कुँजी हैं । यहाँ की बिबिधता को मन से स्वीकार और अंगीकार करने की परम्परा ने ही सदियों से इस पवित्र और पावन भारत भूमि की गरिमा और इसका भूगोल बनाए रक्खा हैं । संसार भर में कोई भी विचार धारा हो , कही की भी कैसी भी भौगोलिक सनरचना हो , कहीं पर भी कैसा भी मौसम हो, पृथ्वी और प्रकृति का हर रूप हिमालय से सागर तक के भारत में मौजूद हैं । अतः वेदव्यास का वाक्य कि जो कहीं भी हैं वो भारत में हैं और जो भारत में नही हैं वो कहीं नही हैं   ये महाभारत और भारतवर्ष दोनो का पर्याय ही हैं । इस कारण से बिना भारत को और यहाँ के लोगों के मनोभाव को समझे किसी भी तरह का निति निर्धारण करना न ही उचित हैं न ही वो मनोवाञ्छित फल और प्रभाव दे सकता हैं ।