Wednesday, December 21, 2011

कर्मण्ये वाधिकारस्ते माँ फलेषु कदाचन ..........

वेदव्यास के अतिरिक्त गीता के चार श्रोता थे और दो वक्ता | श्रोता थे अर्जुन , संजय , ध्रितराष्ट्र , और बरबरी एवं वक्ता थे कृष्ण और संजय | बरबरी भीम के पुत्र घटोत्कच का पुत्र था जो यहाँ उतना प्रासंगिक नही हैं | गीता के बारे में सभी ऐसा सोचते हैं की कृष्ण ने गीता अर्जुन को युध्द के लिए प्रेरित करने के लिया कही थी पर वास्तव में यह युध्द रोकने का कृष्ण का अंतिम प्रयास था | यहीं ध्रितराष्ट्र और संजय प्रासंगिक हो जाते हैं |
गीता वस्तुतः कर्त्तव्य पथ से विचलित लोगों को अपने स्वाभाविक कर्म की ओर धकेलने का सार्थक प्रयास हैं | अर्जुन ने तब गीता समझी जब वो अपनी सभी पूर्व के पूर्वाग्रह से मुक्त हो कर कृष्ण की बातें सुनी और कृष्ण को अर्जुन को पूर्वाग्रह से मुक्त करने में ही गीता का अधिकांश भाग बीत जाता हैं | ध्रितराष्ट्र ने पूरी गीता संजय के मुख से सुनी जो वही थी जो कृष्ण उस समय अर्जुन से कह रहे थे अर्थात अंततः ध्रितराष्ट्र को भी संजय के माध्यम से सुना रहे थे | शायद उनकी मंशा थी की ध्रितराष्ट्र को भी अपने कर्त्तव्य का ज्ञान होगा और एक राजा के रूप में वो भारत को आने वाले विनाश से बचा लेंगे | उन्हें लगा होगा की वो अंधे हैं बहरे नही पर कृष्ण का अंतिम प्रयास भी व्यर्थ हुआ और एक महान युग के अंत को नही रोका जा सका | वेदव्यास ने जब गीता लिपिबध्द की थो उन्होंने भी गीता संजय के माध्यम से ही कही क्योकि जैसे कृष्ण एक हीं थे वैसे हीं अर्जुन भी एक हीं थे बाकी सभी में कहीं न कहीं एक ध्रितराष्ट्र बैठा हुआ हैं | जो चीजें व्यक्ति देखता नही हैं वो उसे समझने का भी प्रयत्न अक्सर नही करता हैं. या यूँ कहें की समझ नही पाता हैं | अंधेपन में बहरेपन का तात्पर्य यही हैं और इसी से मुक्त करना गीता का मूल तात्पर्य हैं और होना ही मूल कर्म और कर्त्तव्य हैं | बाकी सब सिर्फ सुन्दर चाहरदीवारियाँ हैं और उनमे खोने से फल पाने का तो कोई चांस हीं नही हैं |

..............कर्मण्ये वाधिकारस्ते माँ फलेषु कदाचन ..........

.......................... अश्विनी कुमार तिवारी

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