फिर
भी !
परिवर्तन संसार का
नियम हैं , और जड़त्व भी
,
नये निर्माण को
टूटती है जड़ता , तो होता है कष्ट भी ।
कोई नही जानता टूटते
वक्त , विनाश है या सृजन भी ,
कष्ट से गुरजते हुए
आगे , मिले कहीं , कोई खुशी भी ॥
जो जहाँ जैसा , अपने हिसाब से , रहना है तार्किक भी
,
तन मन को भी लगता ये , कितना सुविधाजनक भी ।
पर समय को एकरसता
कहाँ मंजूर , आदत से मजबूर भी ,
बदलते रहना , और बदल देना , सब उसकी मर्जी भी ॥
हम अपनी चाल
चलते और वो
पासे अपनी भी ,
कुछ तो चला ले पा रहे मर्जी अपनी , लगता यूँ भी ।
हर खेल की तरह
अनिश्चितताओं में गुजरती जिन्दगी भी ,
चलती है समय के साथ ,
कुछ लम्हे हमारे हिसाब से भी ॥
हवा का धर्म है बहना
पर रुख मोड़ तुफानो
का भी ,
कर लेते हैं रौशन चिराग
जियाले अँधेरे घरों में भी
।
हैसला हो इरादों में
तो चला आता आस्माँ जमीं पर भी ,
तकदीरें पलट जाती
जुनून से हो समय विपरीत तब भी ॥
............. अश्विनी कुमार तिवारी ( 20.10.2012 )
उम्दा है !!!
ReplyDelete