सर्द सुबह और चाय की चुस्की
सर्द सुबह और चाय की चुस्की
सर्द सुबह और चाय की चुस्की दुबक रजाई में मित्रों।
साँझ अलाव जलाकर गप सप का हैं सानी कोई मित्रों ॥
दोपहर की धूप गुनगुनी जब तन को छू अलसाती मित्रों।
लगता जन्नत में भी ये सुख होगा हासिल कहाँ पे मित्रों ॥
पर जब सपने से बाहर आकर दिखती दुनियाँ हैं मित्रों।
बिन कपड़े माँ की छाती से चिपके ठिठुरते हैं बच्चे ॥
फुटपादों पर ओढ़ प्लास्टिक और जला करके टायर।
कटती होगी दोजख सी रातें कैसे उनकी बोलो मित्रों ॥
सुख दुःख का अनवरत व्यापार चलता रहता हैं मित्रों।
एक समय के दो पहलू कैसे विचित्र से होते मित्रों ॥
क्या हम अपने हिस्से का कुछ सुख दुःख से बाँट नही सकते।
मुस्कान बाँट कर चेहरों पर कुछ आत्मिक शान्ति नही पा सकते ॥
सबकी किस्मत बदल सकें ऐसी तकदीर कहाँ मित्रों।
सुख दुःख की खाई पाट सके ऐसा कोई पुल कहाँ मित्रों ॥
बस दुजे का दुःख थोड़ा अपने अंदर महसूस कर सकें।
इंसानियत इंसान के अंदर बस इतनी बची रहे मित्रों ॥
........ अश्विनी कुमार तिवारी ( 26.12.2012 )
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