Saturday, September 14, 2013

हमारी राजभाषा हिन्दी भाग 3

        हमारी राजभाषा हिन्दी भाग 3

    अगर भारत के इतिहास पर नजर दौड़ाएँ तो हमें दिखता है कि जिन वस्तुओं , परम्पराओं , भाषाओं और ऐसी न जाने कितनी हीं चीजें होंगी जिन्हे राजकीय संरक्षण मिलता रहा हैं उन्होने अपने संरक्षण के समय काफी विकास किया । कुछ ऐसी भी चीजें थी जिन्होने उपेक्षा के वावजूद भी अपनी उपस्थिति मजबूती से बनाए रख्खी । पर आजादी के इतने वर्षों का अनुभव हमें कुछ और हीं दृश्य दिखाता हैं । ऐसा महशूश होता हैं कि जिन्हे भी राष्ट्रीय होने का गौरव दिया गया वो विलुप्ति के कगार पर पहुचते जा रहे हैं या पहुँच गये हैं ।

    सबको साथ ले कर चलना हमारी भारतीय संस्कृति की गौरवमयी परम्परा रही हैं आज भी हम उसे निभाने की पूरी कोशिश करते हैं पर पूर्व की तरह निभा नही पा रहे हैं । अगर इस कारण की तह में जाना चाहें तो समझ मे आता हैं कि भारत में सब साथ रहते चलते और विकास जरूर करते थे पर अंतिम निर्णय लेने का अधिकार किसी एक के पास ही रहता था और सब उसे मानते भी थे । ये स्थिति घर , समाज से लेकर राष्ट्र तक में थी । पर आज का परिदृश्य कुछ और ही हैं । आज देश में लोकतंत्र हैं । एक निरूदेश्य भीड़ समाज के लगभग अवांछित से व्यक्ति को चुन कर संसद और बिधान मण्डलों में पहुँचाती हैं जहाँ पहुँच कर वो सब एक नयी भीड़ का निर्माण करते हैं और कर्कट बुद्धि का प्रयोग करते हुए देश का सम्यक और नियंत्रित विकास बाधित करते हैं । हर कोई अपने हिसाब से देश चलाना चाहता हैं इस लिये देश की नीतियाँ लोलक ( पेण्डुलम ) की तरह डोलती रहती हैं और किसी भी अच्छे या बुरे निर्णय पर पहुँच नही पाती । ऐसा नही है कि सिर्फ बुरे लोग हीं नेता बन रहे हैं अच्छे लोगों की भी अच्छी खासी जमात मौजूद हैं पर बाल्टी भर पानी को जहरीला बनाने के लिये जहर की एक बूँद ही काफी होती हैं और यहाँ तो ...... !

    राजभाषा के सम्बन्ध में जब संवैधानिक प्रावधानों आ अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि भारत की विविधता को ध्यान में रखते हुए बडी ही सुझ बूझ के साथ बनाया गया हैं । पुरी कोशिश दिखती हैं कि राजभाषा हिन्दी किसी को भी थोपी सी नही लगे बरन उसे चरणबद्ध तरीके से सम्यक रूप से लागू करवा दिया जाय । यहाँ तक की 15 बर्षों के लिये उस भाषा को भी पूर्ववत चलाने का प्रस्ताव शामिल किया गया जिसके खिलाफत मे 200 सालों तक लड़ते रहे थे । कारण ! वो हम भारतीयों के ‘चलता’ है और ‘आलसीपने’ के नैसर्गिक व्यवहार से अच्छी तरह वाकिफ थे ।

    अंग्रेजी के लिये छोड़ी गयी दरार आज इतनी विशाल हो गयी हैं कि आज उसे बन्द करना असम्भव सा लगने लगा हैं । इसका कारण भारत की सामान्य जनता नही बल्कि वो अनियंत्रित भीड़ हैं जो हमारे संसद और बिधान मण्डलों में भरी पड़ी हैं जिसका मकसद येन केन प्रकारेण अपनी स्थिति अपनी और अपनी आने वाली पीढ़ीयों के लिये बेहतर करना हैं ।

     संविधान का आदर करना भारत का नागरिक होंने के नाते हमारा कर्तव्य हैं अतः वर्तमान समय में जितनी भी व्यव्स्था संविधान हमारे लिये हिन्दी भाषा के उपयोग के लिये करता हैं उसका प्रयोग हमारे लिये अनिवार्य कर्तव्य होना चाहिये । मानसिक स्तर पर भी मनसिक दिवालियेपन से उपर उठ कर गैर जरूरी अंग्रेजी प्रयोग को छोड़ना चाहिये । अगर आपकी बात सामने खड़ा व्यक्ति हिन्दी में अच्छे से समझ सकता हो तो उसे जबर्दस्ती अंग्रेजी सुना अपनी महानता सिद्ध करने की जरूरत नही होनी चाहिये । चलन में आ चुके अंग्रेजी के शब्द इस्तेमाल करने में परहेज करना उचित नही हैं क्योंकि भाषा का कार्य विचारों का सम्प्रेषण भी हैं । हर भाषा देशज और विदेशज प्रचलित शब्दों को अंगीकार करती हैं ये प्रवाहित हो रही भाषा के संस्कार हैं । इससे भाषा दूषित नही बल्कि और अधिक प्रभावशाली और पहुँच वाली हो जाती हैं । आज जिस तरह से दुनिया संचार माध्यमों से सिमट गयी हैं उसका प्रभाव भाषा और हमारी अभिव्यक्ति पर पड़ना अस्वभाविक नही हैं । सिर्फ तकनीकि , विधिक , या व्यापारिक शब्दों के बहाने अंग्रेजी प्रयोग को बढ़ावा देना उचित नही हैं । दुनियाँ के कोई भी शब्द हिन्दी के व्याकरणिक नियमों के अनुसार इस्तेमाल किये जा सकते हैं । फिर भाषा की दरिद्रता क्यों ये समझ नही आती । जितनी मेहनत कर कर के हम अपनी अंग्रेजी दुरूस्त करते हैं उसका यदि एक प्रतिशत भी हिन्दी भाषा के लिये दिया जाय तो इसका इस्तेमाल हम आप अंग्रेजी की तुलना में बेहतर ढंग से कर पाऎँगे ।

     अंत में अपनी बात समेटते हुए कहना चाहूँगा कि भाषाई और मानसिक दरिद्रता से उपर उठ कर अपनी सोच और स्थिति दोनो को बेहतर और अनुकरणीय बनाना हमारा लक्ष्य होना चाहिये । हमारा सम्मान ही देश का सम्मान हैं और देश का सम्मान हमारा वास्तविक सम्मान । जो हमें चाहिये हमें दूसरों को भी वही देना होगा । और भाषा वही होनी चाहिये जिसे समझना और अभिव्यक्ति देना सरल हो । मेरा और बहुत से आदरणीय महान लोगों और जन सामान्य का यही मानना हैं कि हिन्दी भाषा में ये दोनो गुण हैं ।

  -------------- अश्विनी कुमार तिवारी (14.09.2013)  

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