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मोर का नृत्य
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ले पंख नोच न कहीं मेरा
,
सुन्दरता पर मोहित
मानव ।
हैं भला इसी में
बिधि मेरा ,
पंख फैलाया हैं मैने
,
मधुबन में उसे
सुखाने को ।
और डगमगाता रहता हूँ
,
निज भार संतुलित
करने को ॥
तुम नृत्य समझते हो मेरा
,
वह मेरी हैं मजबूरी
मानव ।
औरों की व्यथा पर
खुश होना ,
हैं तेरी यह फिदरत
मानव ॥
__________ अश्विनी कुमार तिवारी ( 13/03/2015 )
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