रत्नावली
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ओह वो चले गए ! चले ही जाना चाहिए था उन्हे ! मैंने
भी तो कैसे बात किया था ! कितना प्यार था उन आँखों मे मेरे लिए ... नही नही प्यार
नही आसक्ति थी तभी तो ... ! नही नही प्यार ही रहा होगा ! मैं ही अनर्थ तो नही सोच
बैठी थी ..... ना ना ... हा हा .. स्वत: भुन भुना रही थी वो सितकेशी ! श्वेत धवल
स्निग्ध केश के बीच एक सिंदूर की गाढ़ी रेख विवाहित होने का संकेत कर रही थी ! सबने
हमेशा अपनी झोपड़ी में अकेले ही देखा था ! नित पूजा पाठ भजन ! कभी कोई हाल चाल भी
नही पूछने वाला ! कभी कभी अकेले मे कुछ बुद्बुदाती भी रहती थी ! चेहरे पर कभी
विषाद तो कभी गर्व कभी हास्य की रेखाएँ आती जाती रहती है पर क्या इतना आसान है उन
आँखों मे लहराते समन्दर के परे देख पाना ! आँगन मे लगे तुलसी के पौधे की सेवा बड़े
जतन से करती थी ! कभी कभी तो घंटों वही निकल जाते ! कब सुबह से दोपहर हुई कुछ जैसे भान ही नही रहता ! जब तुलसी के पौधे
में मंजरियाँ निकल आती तो उसकी खुशी देखते ही बनती है ! कई बार मन मे प्रश्न सा उठ
खड़ा होता है कि कौन है आखिर क्या इसका कोई नही है ! झुर्रियों के चेहरे के पार अगर
देखें तो लगता है कि किसी समय मे इनकी सुंदरता का जोड़ा नही होगा ! शायद कोई अप्सरा
या गंधर्वकन्या या कोई यक्षणी ... शायद कोई शाप के कारण जैसे पथभ्रष्ट हो धरती पर
आ गई होगी ..... ! आज भी इस चेहरे की आभा से बच पाना इतना आसान नही है !
नही नही असह्य है यह वियोग ! क्यूँ चली गई तुम ! आह
कैसी झमाझम बारिश हो रही है आसमान मानो सम्पूर्ण सृष्टि को जैसे बहा ही ले जाएगा !
काश की तुम अभी पास होती .. तुम्हारे स्निग्ध मोम मृणाल सी वाहु और रेशम सी आभा
वाले मदहोश करदेने वाली केश राशि .. आह इस सम्मोहन से कौन मुर्ख बाहर आना चाहेगा !
नही नही एक पल अब और नही .... ! बाहर की तेज बारिश और हवा के तीव्र झोंके भी उसके तीव्र आवेग को थाम सकने की हैसियत नही रखते ... कौन रोक लेगा भला ... क्या यह
उफनती नदी क्या यह आसक्ति के आवेग पर भारी पड़ेगी ... अरे एक लाश कहीं से बह कर चली
आ रही है ! कैसा बिकट समय है .... अरे यह क्या उसने नदी मे छलांग लगा दी है ..
अरे कोई तो बचाओ .. पर क्या कोई होगा इस भयानक धड़ी मे इस छपाक के शब्द को सुनने
वाला .. अरे अरे यह क्या शायद उसने उस मुर्दे को हीं केले का थम्ह समझ लिया है
शायद बच जाए पर क्या सचमुच ... बच पाएगा !
अचानक नींद से जाग पड़े थे सारे शरीर ने एक साथ पसीना
उगल दिया था गर्मी तो नही थी पर ... कल विवाह पँचमी थी कल हीं तो अपने आराध्य की
कथा समाप्त की है ! पिछले दो ढाई वर्षों
से से तो कथा के अलावा कोई खबर नही थी .... पर उससे पहले भी कितना भटके थे .. बस
राम नाम की रट कही कोई कुछ दिशा नही पता नही क्या करना है पर ..... कल उस भटकन को
एक स्थान मिला .. पर ओह यह हृदय मे यह कैसी वेदना का अनुभव है ... हे प्रभो क्या
कुछ छूट गया .... आँखो से दो बुंदे कपोलों पर ढुलक आई ...... ओह देवी तुम !
तुम्हारा उपकार कैसे भुला दिया मैंने ... तुम हीं तो हो जिसने इस अभागे लक्ष्यहीन
को लक्ष्य दिया .... तुम न होती तो शायद यह भी न होता ! आँसुओं की कुछ मणियाँ उस
देवी को और अपने आराध्य को अर्पित कर दिया ....... अब तो ये ग्रंथ पूरा हो गया
क्या लौट जाऊँ ... नही नही अब लौटना सम्भव नही ..... इसी मोह और अज्ञानता से तो
देवी ने मुक्ति दी थी ... नही नही ... देवि लौट कर तुम्हारा अपमान करने का साहस
नही करा सकता ... अब ये जीवन मात्र आराध्य का है ... हे राम उनकी रक्षा करना ....
!
बारिस की तेज आवाज मन मे एक अलग अनुभूति पैदा कर रही
की मन जैसे काम के बाणों का प्रतिकार नही कर पा रहा था उनके संग बीते मघुर
स्मृतियों के पल मन पे छते जा रहे थे .... कि तभी एक भूत की तरह जल से लतफत अस्त
व्यस्त वो सामने प्रकट हो गया ...... चौक पड़ी वो .. कैसे आखिर कैसे वो मेरे स्वप्न
से निकल कर साकार हो गए .. तभी तंद्रा टूटी ... रत्ने .. मैं .. मैं .. नही सह सका
तुम्हारा विरह .. देखो .. देखो प्रिये में सभी बंधनों को पार कर बस तुम्हारे लिए
तुम्हारे पास ... क्या कहा बंधन .. और कितना बंधन मे जकड़ेंगे आप .. आप बंधन तोड़
कर नही कितने बंधन मे जकड़ गए हैं पता भी है आपको ... छी छी .. जितनी आसक्ति इस हाड़
माँस के पुतले मे है उसकी आधी भी अगर भगवान मे होती तो आप का उद्धार हो जाता .....
काठ सा मार गया .. एक शब्द फिर नही निकला ... वो बाहर निकल गया उसी बारिश मे जिसमे से न उसे मुर्दा समझ आया था न साँप जिसे रस्सी समझ खिड़की
चढ़ आया था ... !
जाने कब तक यू हीं अनम्यस्क सी बुढ़िया तुलसी के पास
खड़ी थी .. कानो मे आवाज पड़ी .. अरी ओ ताई .. ताई .. सुनती हो .... अरे पता है ..
एक महात्मा आए है ... सुना है बड़ी अच्छी रामकथा सुनाते है .. पता है .. उन्होने
खुद ही लिखा है अपनी बोली में बड़ा मीठा स्वर है .. तुम भी चलोगी क्या .. गाँव मे
सब जा रहै है .. चलोगी क्या .. !
एक मुस्कान सी थिरक गई थी चेहरे पर .... थोड़ी शाम भी उतर
गई थी जैसे !
--------- अश्विनी कुमार तिवारी ( 20/04/2017 )
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