बाईक की सवारी
दो अनाड़ी निकल पड़े थे , करने बाईक सवारी ।
रोड पहाड़ का ऊँचा नीचा , बदन के दोनो भारी ॥
छुट्टी का दिन रविवार का , घर मे हो रहे बोर बड़े ।
ना सोचा ना खुद को देखा , मंग्पु घूमने निकल पड़े ॥
खाया पिया तीन बजे फिर , पहने ब्रांडेड कपड़े नये ।
और मित्र ने लिया कैमरा , पानी बोतल निकल लिये ॥
हंड्रेड सीसी का स्प्लेंडर , दो सौ किलो बैठ लिये ।
सॉकर सहमा सिमट गया था , गाड़ी डगमग बढ़ा दिये ॥
हँसते बतियाते जा रहे थे , काटे तीखे मोड़ कई ।
फिर लगा कि नम्बर दो मे शायद , गाड़ी अपनी बढ़े नही ॥
दो विचार दो आदमी , मन मे फिर एक द्वन्द हुआ ।
दो की जगह एक लगा लूँ , निर्णय फिर उस पल लिया ॥
क्लच दबाया गियर बदला , फिर ना जाने क्या हुआ ।
अगला चक्का हवा में था , आँखों मे अँधेरा छा गया ॥
पाराफिट से टिकी हुई , गाड़ी थी अबतक सिसक रही ।
चाभी निकाल कर बन्द किया , पर चोट का हमको पता नही ॥
मित्र पैर को पकड़े अपने , पारफिट पर थे बैठ गये ।
गई नजर अपने घुटने पर , फटे पड़े थे पैंट नये ॥
घूमने के पहले प्रोग्राम का , हश्र हुआ ऐसा मानो ।
सर मुड़ाते ही ओले ज्यों , पड़ने लगे मित्र जानो ॥
नजर पड़ी जबसे चोट पर , दर्द तो फिर बढ़ने ही लगा ।
चलचित्र सा फिर आँखों मे , आगे पीछे का चलने लगा ॥
हँसते थे , पछताते थे , उस घड़ी को कोसते जाते थे ।
पर लौट के बुद्धू घर आने के , सिवा न कोई रस्ते थे ॥
जैसे - तैसे बाईक उठाई , हेंडिल था थोड़ा मुड़ा हुआ ।
चक्का अगला मडगार्ड से , फँस बढ़ने से अड़ा हुआ ॥
थोड़ा बहुत ठोक ठाक कर , गाड़ी चलने के योग्य किया ।
डरते - डरते जैसे - तैसे , बैठ प्रभु को याद किया ॥
जान बची तो लाखो पाये , पैर में पट्टी को बँधवाये ।
डाँट प्यार सब खाने को , लौट के बुद्धू को घर आये ॥
........ अश्विनी कुमार तिवारी ( 10.05.2012 )
No comments:
Post a Comment