Friday, May 11, 2012

अ-कल्पित

                     अ-कल्पित

... और मैने आते ही यह खबर सुनी ..... लक्ष्मी बाबू नही रहे !!!
सुन कर धक्का सा लगा .. उनका एक चित्र सा दिमाग मे बनने लगा ... श्वेत चमकता मुख मण्डल ... सौम्य हँसी ... विद्वान ... धोती कुर्ता मे वृद्ध होने पर भी एक आकर्षक और गरिमामय छवि ।
अभी चार महीने पहले ही तो छोड़ कर गया था , सब कुछ ठीक था । हलाकि मैने दिल्ली मे सुना था कि वे इलाज के लिये बम्बई गये हैं किंतु उस समय मेरे दिमाग मे बिलकुल नही आया कि पुनः मैं उन्हे देखने का सौभाग्य प्राप्त नही कर पाऊँगा और उनके स्नेहिल स्पर्श से वंचित हो जाऊँगा ।

... उन्हे केंसर था और उसी के ऑपरेशन के बाद कॉमा मे चले गये ...... । बेटी की शादी मे मनलायक वर नही मिलने की तकलीफ भी उन्हे भीतर ही भीतर खोखला कर रही थी ... शायद !
खैर उनके अंतिम संस्कार का बनारस मे होना तय हुआ । यहाँ मेरे आने के एक दिन के बाद राजेश के साथ मुझे घर की रखवारी की जिम्मेदारी सौंप कर सुजीत सर बनारस चले गये ।
उस समय के बीते छण काफी आनन्ददायक थे । देर रात तक हम बात करते रहते थे । कभी किसी की बुराई तो कभी प्रशंसा , कभी कभी नकल भी उतारा करते थे । दूध काफी मात्रा मे उपलब्ध था  ... राजेश की बनाई राबड़ी !!!! वाह क्या कहने ... याद आने पर अभी भी मुँह मे पानी भर आता हैं ।   
हमलोग तैमूर लंग तथा चंगेज खाँ की बाते करते तो कभी हिटलर काकी के दिये हुए व्याख्यानों पर तर्क करते ( एतिहासिक चरित्र प्रतीक मात्र हैं ) । राजेश का कहना था कि असली भयानक दृश्य तो तब उतपन्न होगा जब चाची लोग आयेंगी । उनके श्वेत वस्त्र .... को सहन कर पाना शायद मुश्किल हो । किंतु मेरे मन में एक शंका थी कि सम्भवतः वो नही हो जिसकी आशा है ... क्या कारण पता नही ।
आखिर .... वो दिन आ ही पहुँचा जिस दिन सभी लोग आने वाले थे । सुबह ही भैया लोग आ गये । चाची नही आई ... वो बाद में आने वाली थी । तभी मैने तीन औरतों ( चाचियों ) को आते देखा जो सम्वेदना प्रकट करने और रोने का मन बनाकर आई किंतु उनकी आशाओं पर पानी फिर गया । वे कुछ देर भैया से बात करती रही और निराश हो कर गयी ।
बड़े भैया बम्बई का हाल सुना रहे थे कि वहाँ क्या क्या हुआ । कुछ बातें ऐसी भी थी कि हँसी जबरन ही रोकनी पड़ी जैसे कि अमिताभ वच्चन को देखने वाले डॉक्टर ने भी मेरे पिता जी को चेक किया था ...।
आखिर चाची आ गई , जिन क्रन्दनो और भावत्मक दृश्य हमारी कल्पना मे थे वे कल्पित ही रहे । मुहल्ले भर कि औरतें आँखों मे जल भरे पहुँची किंतु जी खोल कर रोने की तमन्ना उनकी अधुरी रह गई । कुछ लोग अपने अपने योगदानो पर भी चर्चा कर रहे थे । इनमे हिटलर काकी का वक्तव्य मुझे याद रह गया , राजेश ( उनका लड़्का ) की तो तवियत खराब थी किंतु मैने उसे जबरदस्ती भेजा ... आखिर समाज और जीवन मूल्य भी कोई चीज है कि नही । वैसे जाने को तो मेरी बेटी भी तैयार थी किंतु मैने रोक लिया ।
ये बाते उतनी सच थी जितना सच शीशो के पेड़ का पतझड़ में हरा भरा दिखना । कुछ लोगों की आदत होती है थोड़ बढ़ा चढ़ा कर बोलना .... ।
खैर यह प्रकरण भी समाप्त हो गया । जो भी कल्पनायें हमने की थी सब उल्टी हुई । पर इन सब में कहीं कुछ खो चुका था ... इस संसार से ... हमारे बीच से एक मनीषी उठ चुका था ।
             ........ अश्विनी कुमार तिवारी ( 11.05.2012 )

2 comments:

  1. चित्र अच्छा दिखा. दुख और हँसी एक साथ. वो भी क्या तूफानी दिन थे. आपकी अनुमति मिले तो शेयर करना चाहूँगा.

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    1. संतोष जी धन्यबाद ! मुझे अच्छा लगा ये जान कर कि आप इस कहानी के द्वारा अपने उन पलों से जुड़े जो अब सिर्फ यादों मे ही हैं । आप जरूर शेयर करें शायद इससे लोग किसी समाज की बनती बिगड़ती सम्भावनाओं को समझें और जुड़े । वैसे कहानी का मतलब तभी हैं जब कहा जाय । आप भी कहेंगे तो अच्छा लगेगा ।

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