नासतो विद्यते भावो ......
सच और झूठ को जानने का एक मात्र पैमाना है , परिस्थितिओं और अपने विवेक का मेल । सच और झूठ साथ - साथ ही चलते हैं । सच भले ही कभी कभी सच जैसा ना लगे पर अच्छा झूठ वही होता है जो बिलकुल सच लगे । झूठ की ताकत उसके सच लगने मे ही है । अच्छा झूठ सच के जैसा और महिमामण्डित होता है साथ ही साथ तार्किक भी । सच छोटा सरल और सुगम होता है और बहुत कम लोग उसे सच मान पाते हैं । सच जानते हुए भी साबित करना दुश्कर है किंतु झूठ यानी बनाया हुआ सच आसानी से साबित हो जाता है । ध्यान रख्खें कि हजारो के सामने भी कोइ एक सच्चा हो सकता हैं । अपने दिल पर हाथ रख्खें और सच का साथ दें ।
सत्य एक सर्वाधिक उपयोग मे लाया जाने वाला शब्द है सामान्य बोलचाल में इसे सच भी कहते हैं । जो कुछ भी है वही सत्य है और जो नही है वही असत्य है । अस्तित्व मात्र सत्य का ही होता है असत्य का कोई अस्तित्व नही होता । सत्य कभी नही बदलता और ना ही कभी नष्ट होता है वो अनीश्वर है , निरपेक्ष हैं । हाँ ! सत्य कड़वा , कसैला , तिक्त , मधुर , क्षारीय , प्रिय , अप्रिय कुछ भी हो सकता है पर कभी सापेक्ष नही होता सत्य बस सत्य होता है और कुछ नही । हमें पता हो या ना हो , पहुँच में हो या दूर पर सत्य या सच हमेशा वही रहता हैं क्योंकि वो निरपेक्ष है ।
झूठ असत्य का पर्यायवाची जैसा लगता जरूर है पर वास्तव मे थोड़ा उससे अलग हैं । जो असत्य है वो कभी भी सत्य नही हो सकता पर झूठ में कभी कभी सत्य की सम्भावनाएँ छिपी हो सकती है । झूठ कल्पना है और कलपनाएँ कालांतर में कभी कभी सत्य भी हो जाती हैं । बस्तुतः झूठ माया का समानार्थी है । झूठ कभी कभी सत्य उद्घाटित करने का जरिया भी बनता हैं । कहा जाता है ये पुरा संसार ही माया है या झूठ है पर परम सत्य तक पहुँचने का भी तो यही जरिया भी है । इसे ऐसे समझा जाय , हम सभी जानते है कि बच्चे के मुख मे भोजन जाना चाहिये ये सत्य है पर कभी गौर किया है कि सिर्फ इस काम को पूर्ण करने के लिये कितने असम्भव झूठों या माया का सहारा लेना पड़ता है और उसी में भ्रमित होकर बच्चे के मुँह में निवाला पहुँच पाता हैं । ऐसा ही एक मायाजाल हमारे चारो तरफ भी है जिसकी कोशिश मात्र इतनी ही है कि हम उस परम सत्य तक भ्रमित हो कर ही सही पहुँच जायें जिसे हम सब अपनी अपनी अस्था के अनुसार बिभिन्न नामों से जानते हैं ।
अगर इस नजरिये से देखा जाय तो झूठ बुरा तो है पर इतना भी नही जितना समझा जाता है पर तभी तक जबतक वो सत्य तक पहुँचने का मार्ग भर हो ।
तो अब बातें कुछ कुछ साफ होती सी लग रही हैं । जो है वो सत्य है जो नही है वो असत्य है और जो होने और ना होने के बीच है वो माया है या यूँ कह लें झूठ है । झूठ बीच में है अतः उसका गुणधर्म ये है कि वो दोनो तरफ का मार्ग दिखाता है और यही उसका दोष भी है क्योंकि वो सत्य या असत्य दोनो तरफ ले जा सकता हैं । अतः सब इससे बचने की सलाह देते है । यहीँ आपके विवेक का कार्य बढ़ जाता हैं क्योंकि सत्य कि ओर वही ले जा सकता है क्योंकि होने और न होने के बीच जो भी है वो झूठ है माया है ।
नासतो बिद्यते भावो ना भावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्त स्त्वनयोस्तत्त्वदार्शिभिः ॥16॥ गीता अध्याय 2
----- अश्विनी कुमार तिवारी ( 24.07.2012)
कुछ समझ मे नही आया । मेरे लिये यही सत्य है :(
ReplyDeleteमुझे लगता है कि शायद सत्य को आप निरपेक्ष न मान पाये हों क्योंकि हम अक्सर सुनते है कि सबका अपना अपना सच होता हैं । अब मन मे ये भ्रांति उठना स्वभाविक है कि यदि सबका अपना अपना सच होता होगा तो फिर सत्य निरपेक्ष कैसे हुआ । यहाँ हम एक स्वभाविक भटकाव से गुजरते है कि सत्य को सही या गलत मान कर सोचते है और अक्सर सोचने लगते है कि जो सही है वो ही सत्य है । मित्र समझने वाली बात ये है कि सही और गलत न्याय की बात है और दोनो सापेक्ष है । यानी यहाँ तुलना की बात आ जाती है । क्योंकि ये सापेक्ष है अतः क्या सही है और क्या गलत इसका निर्णय देश , काल यानी समय , नियम और परिस्थितियों के आधार पर होगा । निर्णय करते समय विवेक का उपयोग करते हुये देश , काल आदि का विचार करते हुए सही या गलत का निर्णय किया जाना चाहिये ।
ReplyDeleteअब इसे एक उदाहरण से समझने का प्रयास करते है । मान लेते हैं कि एक व्यक्ति ‘अ’ ने दुसरे व्यक्ति ‘ब’ की हत्या कर दी । अब इस विषय पर थोड़ा सोचते हैं । सत्य निरपेक्ष होता है अतः इस घटना में सत्य ये है कि ‘ब’ कि हत्या हुई और ‘अ’ ने यह कृत्य किया । चाहे कुछ भी हो जाय अब ये ही सत्य रहना हैं हमेशा के लिये । अब आते है न्याय पर कि क्या ‘अ’ का ये कर्म सही है या गलत । अब दोनो के बीच उतपन्न परिस्थितियाँ , समय आदि के आधार पर ही इसका निर्णय किया जा सकता है । न्याय के आधार पर ‘अ’ को दोषी या दोषमुक्त करार दिया जा सकता है । वो सही या गलत कुछ भी हो सकता है ये साक्ष्य पर निर्भर करेगा । क्योंकि सही या गलत होना सापेक्ष हैं अतः एक जगह ‘अ’ को गलत तो बिलकुल स्वभाविक है कि दुसरी जगह उसे दोषमुक्त यानी सही मान लिया जाय । चूंकि सत्य निरपेक्ष है अतः निर्णय जो कुछ भी हो ‘अ’ सही हो या गलत पर ये बात कभी नही बदलेगी कि ‘अ’ ने ‘ब’ की हत्या की ।
तो अब शायद ये बात समझ मे आ जाय कि सत्य सही या गलत तो हो सकता है पर रहता हमेशा वही है जो वो है क्योंकि वो निरपेक्ष है सापेक्ष नही । आप चाहे तो अन्य कोई उदाहरण स्वयं सोच कर इसका परिक्षण कर सकते हैं ।
अभी जिस तरह के उदाहरण की बात की वहाँ सत्य ज्ञात था पर परिस्थितियाँ ऐसी भी आती है जहाँ सत्य अज्ञात होता हैं । ऐसी परिस्थिति मे सत्य और हमारे बीच माया कहले या झूठ का परदा पड़ा रहता है और बिना उसमे से गुजरे सत्य तक पहुँचा नही जा सकता जिसकी चर्चा पहले आलेख मे की गयी है ।
आप कुछ नही समझे इसमे गलत कुछ भी नही सम्भव है मैं अपने आलेख मे उस ढ़ंग से अपनी बात नही रख पाया जो कमी मुझे लगी वो मैने इस प्रतिक्रिया रूपी आलेख में रखने की कोशिश की है कहाँ तक सफल हुआ ये आप सब तक बात पहुँचने पर निर्भर है ।
“ नासतो बिद्यते भावो ना भावो विद्यते सतः । “
--------------- अश्विनी कुमार तिवारी ( 31/07/2012 )
सही कहा आपने....thanks
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