Friday, September 14, 2012

हमारी राजभाषा हिन्दी भाग 2


हमारी राजभाषा हिन्दी
सम्विधान का अनुच्छेद 343(1) बड़े ही गरिमा से उद्घोष करता है , “ संघ की राजभाषा हिन्दी और उसकी लिपि देवनागरी होगी । संघ के प्रयोजनो के लिये प्रयोग होने वाले अंको का रूप भारतीय अंको का अंतर्राष्ट्रीय रूप होगा । “
आज इस घटना के करीब 62 साल बीत गये पर आज भी हमारी संघ की राजभाषा ‘हिन्दी’ ,  ‘अनुच्छेद 343(2)’ , ‘राजभाषा अधिनियम 1963 ,  यथा संशोधित 1967 , की धारा 3(3)’ के बनाये चक्रव्युह से अभी भी निकल नही पाई हैं । निकट भविष्य में भी इस घुटन से निकल पायेगी ऐसी सम्भावना दूर दूर तक दिखाई नही पड़ती हैं । हमारे नीति निर्धारकों ने हिन्दी को चक्रव्युह में घुसा तो दिया बड़ी आसानी से पर इस तिलस्म से निकलने का जो रास्ता बना रखा है वो 62 साल बाद भी सपने जैसा ही हैं ।

India that is भारत का नागरिक होने के कारण भारतीय सम्विधान से बाहर कुछ भी करना इसका अनादर करना होगा अतः जो भी और जितनी भी व्यवस्था राजभाषा के सम्बन्ध मे सम्वैधानिक प्रावधानो मे किया गया है हमें उस दायरे में रह कर ही राजभाषा के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाहन करना होगा ।
कुछ लोग इसे अपना सौभाग्य समझ लें या दुर्भाग्य ये तो स्वयं उनके ही उपर है पर हमारा सम्विधान प्रशासनिक प्रयोजनों के लिये राजभाषा हिन्दी के साथ साथ अंग्रेजी भाषा और रोमन लिपि के व्यवहार की सुविधा प्रदान करता हैं । काफी प्रावधान तो ऐसे भी है जहाँ बिना अंग्रेजी के काम ही नही चल सकता हैं । अतः अगर आप केन्द्रीय सरकार के कर्मचारी हैं तो सम्विधान आपसे राजभाषा हिन्दी तो नही पर अंग्रेजी भाषा की अच्छी जानकारी होने की उम्मीद करता हैं । अच्छी बात तो ये है कि हमारे नागरिक,  जिसमे से कुछ प्रतिशत निश्चित रूप से केन्द्रीय सरकार के कार्यालय में कर्मचारी के रूप में कार्य करते है , बहुत अच्छी तरह से सम्विधान की इस भावना का सम्मान करते हैं । अपना घर , अपनी सोच , कार्यालय का कार्य सब दिल लगाकर अंग्रेजी में करते हैं या प्रयास करते हैं । वे सब या वे भी जो अपना कम अंग्रेजी ज्ञान कम्प्यूटर के जमाने मे कॉपी – कट – पेस्ट कर छुपा लेते हैं और अंग्रेजी न आने की हीन भावना से अपने को बचा लेते है , साधुवाद के हकदार हैं ।
आज हमारा भारत प्रगति और विकास के जिस मार्ग पर चल रहा है उसमे इन महानुभावों का ही दुर्लभ योगदान हैं । इससे इंकार तो कोई धृष्ट या कृतघ्न व्यक्ति ही कर सकता हैं । इन सभी प्रणम्य देवताओं को विनम्रता पूर्वक प्रणाम और नमन करना चाहूँगा ।   
अगर राजभाषा नीति की बार करें तो देखने से कभी कभी सन्देह भी उतपन्न होने लगेगा कि क्या वाकई हिन्दी ही हमारी राजभाषा है ? पर तुरत ही अनुच्छेद 343(1) का उद्घोष याद आ जाता है और कही न कही हमारे मन के किसी कोने मे याद दिलाता है कि हिन्दी ही हमारी राजभाषा है । अगर हमारी अंग्रेजी मानसिकता की बात करें तो हमारी अंग्रेजी प्रियता की लालसा पूरा करने की असिमित सम्भावनाएँ मौजूद है । अनगिनत जगहें ऐसी हैं कि जहाँ आप बिना हतोत्साहित और बिना किसी अपराधबोध के शान से अंग्रेजी का व्यवहार कर सकते हैं । कही ना कही हमारी राजभाषा नीति हिन्दी के लिये भले ही प्रेरणा , प्रोत्साहन और पुरस्कार की नीति की बात करती दिखे पर अंजाने मे ही सही अंग्रेजी को प्रोत्साहित करती लगती है । अतः जिन्हे भी अंग्रेजी उचित , व्यवहारिक , विकास का द्वार और प्रतिष्ठित लगती है वो अपनी पीठ थपथपा सकते हैं ।
हमारी राजभाषा हिन्दी की बात करें तो सम्विधान और नीतियों कि रस्सी कुछ इस तरह से गले में फँसी है कि ज्यादे उछल कूद की सम्भावना हिन्दी में प्रशासनिक कार्य के लिये बचती नही हैं । बहुत सिमित प्रयोग की सम्भावनाएँ हैं । सम्भावनाएँ बची है यही हमारे लिये बड़ी बात हैं । सम्भावनाएँ हैं तो आशा है और आशा मन के किसी कोने मे भी है तो अनुच्छेद 343(1) की प्रासंगिकता भी है और यही हिन्दी की ताकत है ।  अब ये ताकत कितनी है ये अलग ही विवाद का विषय है । सम्विधान भले ही राजभाषा हिन्दी के साथ अंग्रेजी के प्रयोग को जारी रखने की बात कहता हो पर कम से कम मुझे तो यही महशुस होता है कि जैसे अंग्रेजी के बीच कहीं कहीं हिन्दी की गुंजाईश छोड़ी गयी हैं । कही ना कही ऐसा भी लगता है कि हिन्दी मे कार्य करना आपके कर्तव्य पर तथा अंग्रेजी प्रयोग आपके अधिकार पर छोड़ दिया है । आजकल कर्तव्य निष्ठा की हमारे मन मे क्या स्थिति रह गई है ये बस स्वयं से पूछने की जरूरत है बताने का विषय नही रह गया है ।
जब गणराज्य की नीतियाँ ही हमारी प्रियतमा अंग्रेजी के प्रयोग के औपनवेशिक अधिकार का उलंघन नही करती है तो फिर सिर्फ हमारी मनोदशा ही हिन्दी के प्रयोग से हमे रोकती है । हम सब ये अच्छी तरह जानते है कि हिन्दी का प्रयोग प्रशासनिक कार्यों मे कितना सिमित है और उसे कर देने से भी अंग्रेजी की स्थिति पर कम से कम इस देश में और अभी दशकों तक कोई फर्क नही पड़ने वाला । कमोवेश कार्यालयों के इतर भी हिन्दी की सामाजिक हैसियत भी कुछ कुछ ऐसी ही हैं ।
अगर केन्द्रीय सरकार के कर्मचारी के रूप की बात करें तो हमारी इच्छा के अनुरूप कितना कार्य होता है ये किसी से छिपा नही है । कितने ही आदेशो का पालन न चाहते हुए भी करना ही पड़ता है । विवशता और घुटन का भाव मन मे रहने पर भी विरोध जाहिर करने की स्थिति कर्मचारी कि पास नही होती हैं ये हम सभी जानते है । पर जैसे ही हिन्दी में कार्य करने कि बात आती है सारा मन का गुब्बार उसी पर निकल जाता हैं । हम सभी को अपनी इस मनोःस्थिति से निकलने की जरुरत है और हिन्दी मे कार्य करने की जो भी सम्भावनाएँ अपने स्तर पर दिखती है उसे अपने कार्य का हिस्सा मान कर करने की जरूरत हैं । अंग्रेजी के जौहर दिखाने के अनगिनत मौके और द्वार आपको बिन माँगे भी मिलेंगे अतः अंग्रेजी के लिये निराश होने की जरूरत कतई प्रासंगिक नही हैं । हिन्दी भी आप के सामने कतई गिड़गिड़ा नही रही है कि भैया कृपा कर के मेरा उपयोग करो ही । हिन्दी का विकास और प्रसार हमारे जैसे कर्मचारियों के भरोसे नही पड़ा है । वह बढ़ भी रही है और हमारी जिन्दगी का हिस्सा भी बन रही है ।
केन्द्रीय सरकार के कर्मचारी होने के नाते राजभाषा नीति और सम्वैधानिक प्रावधान जितना भी कार्य हमें हिन्दी भाषा में सौपते है उसे करना हमारा कार्य और दायित्व है बिलकुल वैसे ही जैसे हमारे तकनिकी कार्य या प्रशासनिक कार्य । हम उनसे अपना मुँह कैसे मोड़ सकते हैं ।
तो फिर आइये हम एक बार फिर अपने मन में सम्विधान का अनुच्छेद 343(1) मन ही मन दुहराएँ कि “ संघ की राजभाषा हिन्दी और उसकी लिपि देवनागरी होगी । संघ के प्रयोजनो के लिये प्रयोग होने वाले अंको का रूप भारतीय अंको का अंतर्राष्ट्रीय रूप होगा । “ 
जय हिन्द !       
            
                        .................. अश्विनी कुमार तिवारी ( 14.09.2012 )

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