Wednesday, September 14, 2011

हमारी राजभाषा हिन्दी

हमारी राजभाषा हिन्दी

हिन्दी पखवाड़ा एक सितंबर से चौदह सितम्बर तक मनाया जाता हैं । चौदह सितम्बर हिन्दी दिवस के रूप मे सम्पूर्ण भारत मे मनाया जाता हैं । यही वो दिन है जब ईसवी सन 1949 को आधिकारिक रूप से हिन्दी को भारतीय सम्बिधान मे राज भाषा का स्थान दिया गया । इस दिन का महत्व इसी से समझा जा सकता हैं कि बिभिन्न प्रचलित भारतीय भाषाओं और आक्रांता शासकों की भाषा अरबी – फारसी के साझा समन्वय से उतपन्न जनसाधरण की सम्पर्क भाषा हिन्दी को राजभाषा यानी की प्रशासकीय भाषा बनने की गरिमा प्रदान की गयी । जनतंत्र के लिये एक जन सम्पर्क भाषा का राजभाषा के गरिमामय पद पर होने से शुभ भला और क्या हो सकता हैं । ये भारत के जनमानस की भावनाओं और उनकी आवाज की जीत की उदघोषणा का दिन हैं ।
इससे पूर्व भारत के इतिहास मे कभी भी किसी जनभाषा के राजभाषा के रूप मे व्यवहार का उदाहरण विरले ही मिले । प्राचीन समय मे संस्कृत , फिर अरबी , फारसी , तदंतर अंग्रेजी भारत मे शासक वर्ग की भाषा रही । राजपूत युग के अंत से अंग्रेजो के शासन प्रारम्भ तक तकरीबन हजार बर्षो तक शासन की भाषा मुख्य रूप से अरबी और फारसी रही । संस्कृत को तो सिर्फ धर्म और उसके समृद्ध साहित्य ने जिन्दा रखा और अवहेलनाओं बावजूद आगे भी जिन्दा रहेगी । अरबी फारसी और फिर अंग्रेजी अचानक से भारत पर शासन की भाषा के रूप मे लागू हो गयी थी क्योंकि उस समय वो आक्रांता थे और यहाँ की भाषा से अनभिज्ञ भी । अपनी सुबिधा के अनुसार उन्होने कार्य किये और उनसे सम्पर्क करने के लिये उन भाषाओं सीखना और समझना यहाँ के लोगों की मजबूरी बनी और लोगो ने कठिन परिश्रम कर उसे सीखा भी ताकि शासन की बात समझी जाय और वहाँ तक अपनी बात पहुचाई जा सके । वैसे भी ससक्त शासन की अवहेलना कर अस्तीत्व बचाये रखना आसान काम नही हैं ।
धन्य हैं महान भारत के महान लोग जिन्होने अपनी भाषा की विरासत को इन सभी बिपरीत परिस्थितीयों मे भी सम्भाल कर रखा । और जब शासन से विरोध की बात उठी तो हिन्दी ही विरोध की आवाज बनी । हिन्दी ही वो भाषा थी जिसे तत्कालीन सभी विचारकों , ने चाहे वो किसी भूभाग से आते हों , उनकी मातृभाषा कुछ भी रही हो , एक स्वर से समर्थन किया और स्वतंत्रता संग्राम मे जन जन को जोड़ा । भारतीय भाषाओं की कोख़ से जन्मी लाड़ली हिन्दी सभी को स्वीकार्य हुई और सभी ने आपसी अनबन भुलाकर उसे उचित मान और सम्मान दिया । संस्कृत की उत्तराधिकारी होने और बिभिन्न बोलियों के करीब होने के कारण सर्वग्राह्यता , सारभौमिकता , और निरंतर प्रगतिशीलता हिन्दी का स्वाभाविक गुण हैं ।
जब कोई भी बस्तु गति मे होती है तो उसे अचानक रोकने मे काफी शक्ति और श्रम की आवश्यकता होती हैं । सही तरीका यह है कि उसे धीरे धीरे गति नियंत्रित कर उसके आवेग को कम कर रोका जाय ताकि कम उर्जा खर्च हो । गति कम करने का तरीका है कि गति बढ़ाने वाले अवयवो का प्रोत्साहन और पोषण कम किया जाय । दुसरा तरीका है कि साथ साथ चला जाय अपनी गति और ताकत बढ़ाई जाय जिससे अनुपातिक दृष्टिकोण से सामने वाले की गति घटती हुई महशूस होगी और तब रोकना आसान होगा । ब्रिटिश शासन के काल मे कुछ समय तक अंग्रेजी के साथ साथ फारसी भी चलती रही किंतु सत्ता की ताकत अंग्रेजी के साथ होने से जल्द ही उसने फारसी को पदच्युत कर दिया । उस समय ये कहावत काफी प्रचलित हुआ था पढ़े फारसी बेचे तेल , देखो भाई किस्मत का खेल
आजादी के समय अंग्रेजी जिस रूप मे शासन व्यवस्था , शिक्षा , न्याय  आदि मे समाविष्ट थी साथ ही साथ जिस तरह ब्रिटिश साम्राज्य के प्रभाव से वैश्विक हो गयी थी को अचानक से हटा देना उचित कदम नही हो सकता था खास कर नवोदित राष्ट्र के लिये जो अभी अभी जन्मा था और जिसने बिभाजन की कटु त्रासदी झेली थी और शायद अंग्रेजो की फूट डालो और राज करो नीति का सबसे बेरहम शिकार था । सम्भवतः आज भी पुरी तरह उबर नही पाया हैं । दुसरी और महत्व की बात यह थी हमारे भारत मे प्रजातंत्र की शासन व्यवस्था को अपनाया गया । जनता के प्रतिनिधि ही जनतंत्र मे महत्वपुर्ण हो जाते हैं । सभी की बातों को महत्व दिये जाने के कारण किसी भी महत्वपुर्ण निर्णय पर पहुचना अब उतना सरल नही रह गया जैसा कि पुर्ववर्ती राज सत्ताओं और ब्रिटिश शासन मे सम्भव था । तात्कालिक टकराव को टालने और देश की नई परस्थितीयों को कुछ समय देने के विचार से अंग्रेजी को चरणबद्ध तरीके से हटाने और हिन्दी को पुरी तरह से राजभाषा का स्थान लेने की सैद्धांतिक सहमति बनी और अंग्रेजी को भी राजभाषा की तरह पुर्व रूप मे अगले पन्द्रह बर्षो तक कार्य करने की सम्विधान मे व्यवस्था की गयी ।
आज चौसठ बर्ष बीत जाने के बाद भी हिन्दी गरिमामय होने के वावजूद अपनी गरिमा के लिये संघर्ष करती हुई नजर आ रही है । निकट भविष्य मे भी सम्भवतः ऐसी स्थिति मे ही नजर आती रहेगी । आज वह समय आ गया है कि अब हमे थोड़ा रुककर पुनः विचार करने की आवश्यकता आ पड़ी हैं । हमे फिर से इमानदारी से उन प्रभावी कारणो पर सोचना पडेगा जिस कारण जन की भाषा जनतंत्र की भाषा के रूप मे प्रभावशाली ढंग से स्थापित नही हो पा रही हैं ।
निश्चित ही अंग्रेजी अपने वैश्विक प्रभाव और कतिपय विशिष्ट गुणो के कारण काफी प्रभावी हैं , आज चौसठ वर्षो मे भारत के विकास मे सहयोगी रही हैं और उसके अमूल्य योगदान को नजर अंदाज करना कही ना कही कृतघ्नता कही जायेगी । किंतु हमे सहायक और शासक के  अंतर को समझना होगा । हमे सहयोगियों से कब इंकार है पर उनका महत्व तभी तक है जब तक वो सहयोगी हों । साधन कभी भी साध्य नही हो सकता और यदि साध्य साधनो मे फँस जाये तो समझ लेना चाहिये कि पतन निकट ही हैं ।       
आज लोगो की मानसिकता और सोच सीमित होती जा रही हैं । व्यक्तिगत विकास और चकाचौन्ध कर देने वाले साधनों को प्राप्त करने अन्धाधुन्ध दौड़ इतने महत्वपूर्ण हो गये हैं कि रिश्ते-नाते , सामाजिक संरचना यहाँ तक की माँ-बाप और बच्चे भी महत्वपूर्ण नही लगते । ऐसे मे देश और उसमे भी राजभाषा हिन्दी के विषय  कुछ भी कहना समय की उपयोगिता को विनष्ट करना लगता हैं । परंतु फिर भी यदि झकझोर कर , समझा कर हिन्दी की बात कर भी ली जाय तो अचानक ही उनका मातृभाषा प्रेम अंगड़ाई लेने लगता है । हिन्दी के रूप मे मातृभाषा पर संकट के बादल घिरते नजर आने लगते हैं । अचानक ही मातृभाषा प्रेम हिन्दी बिरोध का रूप ले लेता हैं । गौर से देखा जाय तो स्थिति ऐसी लगती है जैसे कि मधुर गहरी नीँद मे सुखद सपनो मे खोये आदमी को अचानक से उठा दिया गया है और उसे समझ मे नही आ रहा है कि आस – पास क्या चल रहा हैं । बात तो वही हुई कि डाँट कार्यालय मे पड़ी और घर आ कर पत्नी से लड़ लिये या बच्चे को पीट लिया । अरे ! आपकी मातृभाषा को अंग्रेजी नष्ट किये जाती हैं और आपको हिन्दी से डर लगता हैं । अब इससे बड़ी विडम्बना भला हिन्दी के लिये और क्या हो सकती हैं । समझने की जरूरत है कि संस्कृति के विकास से भाषा विकसित होती है और संस्कृति के ह्रास से भाषा का भी ह्रास हो जाता हैं ।
अपनी स्थिति पर हिन्दी सिर्फ आज इतना ही कह सकती है कि
  “ हमें  अपनो ने ही लूटा , गैरों  मे कहा दम था ।
   अपनी कश्ती थी वहाँ डूबी , जहाँ पानी कम था ॥

और सिर्फ इतना ही अनुरोध करना चाहती हैं कि
एहसास  थोड़ा तो  जगाएँ ,  अपने  दिलों  मे  हम ,
  क्या नाम है अपना जहाँ मे , खड़े   हैं कहाँ पे  हम ,
  है  हमे  जाना  कहाँ और  , चले   हैं कहाँ पे  हम ,
  हमसे .......  पूछे ...... , है ये  मादर – ए – वतन ,
  बन्दे मातरम् ................ बन्दे मातरम् .............. ।  


                                        .................. अश्विनी कुमार तिवारी ( 14.09.2011 )
       

No comments:

Post a Comment