Wednesday, September 21, 2011

भूकम्प


18.09.2011 को सायं 6 बजकर 11 मिनट पर आये भूकम्प ने पुरे भारत को हिला कर रख दिया । सर्वाधिक प्रभावित हुआ सिक्किम जहाँ भूकम्प का केन्द्र था । हमने भी अपने साथियोँ और परिवार के साथ केन्द्र से साठ सत्तर किलोमीटर दूर भयानक झटकों को महसूस किया । ईश्वर की अनुकम्पा से हम सब सुरक्षित थे । मेरे एक मित्र ने मुझे बार बार एक तरह से जिद्द की की मैं इस अनुभव को कलमबध्द करूँ । मै मना करता गया और वो कहता गया । मै ये मानता हू कि मै अगर चाहूँ भी तो कविता नही लिख सकता जब तक कि कविता स्वयं आपके माध्यम से उतरना ना चाहे और माँ सरवस्वती कृपा ना करें । ये कविता खुद के अनुभव सिक्किम और देश के अन्य भागो के भुकम्प पीड़ितों के दर्द और कवि के नजरिये से बिनाश मे सृजन और सृजन मे विनाश की उतपत्ति हैं ।
मै जानता हूँ कि इस भुमिका की कोई आवश्यकता नही है कविता स्वयं ही अपनी बात कह देगी । यदि इस कविता ने समष्टि के दर्द से व्यक्ति को जरा भी जोड़ा तो इसका अवतरण सफल माना जाना चाहिये । मै ये शब्द सुमन सिक्किम के भुकम्प प्रभावितो को विशेष रूप से समर्पित करता हूँ । साथ ही साथ उन्हे भी जो कही से भी इस भुकम्प से प्रभावित होते है । नेपाल , भुटान और तिब्बत की सम्वेदनाओं को भी ये शब्द सुमन अर्पित हैं । अंत मे सिर्फ इतना ही कहूँगा कि अगर भुकम्प को प्रतीक माने तो आपदा किसी रूप मे आये और विश्व मे कही भी आये ये कविता आपको उससे जरूर जोड़ पायेगी । प्रणाम !
                                 ----- अश्विनी कुमार तिवारी             

              भूकम्प
काँपी धरती काँपा घर आंगन ,
काँप गया  अंतर्मन  तक भी ।
काँप थम्ही धरती पल दो पल ,
तन  काँपा  घंटो  तक  जी ॥

निकली चीख, गई तन शक्ती ,
प्राण हलक्  मे  आ लपके ।
बस यह पल है अंतिम ही पल ,
याद  सभी  फिर प्रभु आये ॥

था शोर बड़ा ही विकट भयानक ,
हिलती  थी  धरती  डगमग ।
निकलो  भागो  दौड़ो  बाहर ,
शोर व्याप्त था दिग् दिगन्त ॥

विनाश विनाश केवल विनाश ,
कल्पित हो उठा हृद् अंचल मे ।
शांत हुई धरती  फिर  औचक ,
तन काँप रहा आतंकित मद मे ॥

थे सभी सुरक्षित, घर आंगन भी ,
किंतु डरा  मन  डरता  ही था ।
बीत  गये  घंटों पर  फिर  भी ,
घर  मे जाने  से  डरता  था ॥

कुछ हुवा नही पर हो सकता था ,
वह विनाश  जो  सोचा ना था ।
धरती  की  ताकत  के  आगे ,
यह मनुज कितना  बेबस था ॥

गये चाँद पर  और अभी फिर ,
मंगल  की  हैं  तैयारी  भी ।
सागर  की  गहरायी  नापी ,
और पहाड़ का  ऊँचापन भी ॥

खोद निकाला धरती से भी ,
रत्न बड़े  बहुमूल्य  मगर ।
तोड़ा अणुओं को भी अणु मे ,
शक्ति मनुज की बड़ी प्रखर ॥

डोली नही केवल धरती भर ,
डोल  गया  सिंहासन  भी ।
जब प्राण हलक् मे आ अँटके ,
तो याद आया प्रभु सुमिरन भी ॥

किंतु   नही   थे   बड़भागी ,
हर मनुज यहाँ जो बसता था ।
धरती ने किया सब उलट – पुलट ,
आकाश सभी कुछ लीप रहा था ॥

कितने टूटे घर, लील गया तन ,
घायल की चीखे,  अँधियारे मे ।
सब विवश हाथ ही मल सकते थे ,
किस्मत को कोस तड़पते मन मे ॥

जगह  जगह थी  धँसी  धरा ,
रास्ते  सभी  थे  बन्द हुये ।
बारिश भी था यूँ कसम लिये ,
बरसुंगा अभी ही बिना रुके ॥

सर्वनाश  था  सभी  ओर ,
था काल नाचता हो विभोर ।
सृष्टि लीलती  रही सृष्टि को ,
व्यक्ति  रहा  था  धैर्य खो ॥

था सभी गया था साथ छोड़ ,
जिन पर मानव इतराता था ।
आवास  गिरा,  बिजली  गई ,
फोन  बन्द  था  कहीं  पड़ा ॥

सम्पर्क ध्वस्त,  जीवन विनष्ट ,
कल्पित विनाश था सच हुआ ।
पल दो पल  थी  धरती डोली ,
जीवन कितनो का डोल गया ॥

.............  अश्विनी कुमार तिवारी ( 20.09.2011 )

3 comments:

  1. अति उत्तम हो रहा है.. सबसे मुख्य रहा वो है आपका विषय जिसने दिल को छु लिया.
    अगर किसी को भी ये अहसास करना हो को भूकंप में कैसा लगा होगा तो उसे आपकी ये कविता पढनी चाहिए.
    उत्तम कोटि की कविता हो रही है...भूमिका का कदापि औचित्य नहीं था और नब्बे प्रतिशत लोग आपकी कविता तक नहीं पहुँच पाए होंगे... परन्तु ये उनका दुर्भाग्य है.

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  2. Aapki bhoomika se ye pata chalta hai ki aap kitne bhawuk ho rahe hain par ye baat saamne wala bina aapki kawita padhe nahi pahunch sakta..Par pehle wo wahan tak pahoonche to :)

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