Tuesday, January 3, 2012

नदी

                  नदी

सुनो   सुनो   मेरी   कहानी ,  मैं  नदी  मस्तानी ।
लगती हूँ जानी  पहचानी ,  फिर भी हूँ  अंजानी ॥
ज़हर बनाते हो तुम जिसको , था अमृत वो पानी ।
बाँधते हो जिसको थे पूजते , उसको हर नर नारी ॥

बूँदों   से  मैं  बनी  और  ,  पर्वत   से   हूँ  झरी ।
मुश्किल  राहों  मे  भी  मैं , राह  बनाती   चली ॥
जो अड़े बहे  जो झुके  उन्हे , सहलाती  मैं चली ।
बही दूर तक और अंत मे , सागर से जा मिली ॥


कितने गाँव, नगर, सभ्यता , बसती और उजड़ती रही ।
और  सीँचती  उनको  मैं  , अनवरत  बहती  रही ॥
भेदभाव  प्राणी - प्राणी में , मैने  कभी  किया नही ।
जो भी आया अमृत देने में , संकोच तनिक भी किया नही ॥

कभी – कभी   मनमर्जी   से  तोड़  , किनारे  भी   बही ।
और पलट मिट्टी की किस्मत , सिमट आप मे ही गई ॥
रखती   हूँ  मैं  स्वच्छ जगत ,  और धरा  को  हरी-भरी ।
जग  के  विकास  की, जीवन की , मैं  हीं  हूँ मुख्य कड़ी ॥

नदी  नार  की  गति  एक  सी  , कहते  हैं    ये  ज्ञानी ।
पैदा   हुई  जहाँ   वहाँ   ये  ,   काम    नही    हैं  आती ॥
जीवन   दोनो  का  हैं  अर्पण ,  बस   दूजे  की  थाती ।
नार  पिया  से   और  नदी ,  सागर  से  जा  मिलती ॥

                                       ---------  अश्विनी कुमार तिवारी

No comments:

Post a Comment