Monday, January 30, 2012

स्वतंत्रता और गणतंत्र



26 जनवरी आई और आ कर गई भी । तो आजकल स्वतंत्रता और गणतंत्र के बारे मे सोच रहा हूँ । आप तो जानते ही है कि मेरे दिमाग मे कब कौन सी बात आ जाये मै खुद नही जान पाता । वैसे भी कहा जाता है कि " जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि " । अब महान कवि होने का दावा तो नही करता पर मन और दिमाग जरूर कवियों की तरह सोचता हैं । नतीजा व्यवहारिक बुद्धि पर अक्सर भाव प्रधान बुद्धि हावी हो जाती है । अब ये भी तय है कि अपनी हर एक सोच हरएक के साथ तो साझा नही कर सकता न ही करना चाहिये । अपनी कुछ सोच मै आपके साथ भी साझा करके अच्छा महसूश करता हुँ । 


जब बात महान लोगों को गाली देने की आती हैं तो इस देश मे भगवान के बाद सर्वाधिक गालियाँ गाँधी के ही हिस्से मे आती हैं । अधिकांश समझदार लोगों का यह प्रिय शगल हैं । उससे भी जब पेट नही भरता तो गान्धी परिवार से तुलना करने लग जाता है और इन गाँधियों की साथ साथ उस गाँधी को भी लपेट लेते हैं । इस सम्बन्ध मे बस यही कहना चाहता हूँ कि ये मोहन दास करमचन्द्र गाँधी यानी महात्मा गाँधी थे जिन्होने गाँधी पदनाम को इतना महान बना दिया कि यह शब्द ही पुज्य बन गया । सादगी , शांति , सत्य और सम्मान का प्रतीक बन गया यह गाँधी शब्द । पर इसका तात्पर्य कतई नही है कि हर गाँधी पदनाम धारी व्यक्ति महान, पुज्य और पवित्र होगा । अतः दो गाँधी के बीच तुलना तो होनी ही नही चाहिये । रही बात आजाद देश के आजाद नगरिक की तो स्वतंत्र और स्वछन्द के बीच के महीन अंतर को समझने की जरूरत हैं । 

सामान्य रूप मे कहेँ तो जैसे आप जब चाहे टहल ले और जहाँ मर्जी टहल लें , तो ये स्वछन्दता की श्रेणी मे आयेगा । अब आप खुद से एक नियम बनाते है कि मैं रोज सुबह पाँच बजे उठकर पार्क मे टहलूँगा और नियम से पालन करते हैं तो यह आपकी स्वंत्रता कहलायेगी । परंतु यही नियम बनाने के किये यदि किसी को अधिकृत करते है और फिर यदि आप नियम पालन को बाध्य होते हैं तो यह गणतंत्र की श्रेणी मे आएगा । आज हम एक गणराज्य के नागरिक हैं , अत: हम स्वछन्द  नही हो सकते ।  हमारी स्वतंत्रता सिर्फ गणो को चुनने तक ही सिमित हैं और हम गणादेश भोगने को विवश गणतंत्र के स्वतंत्र नागरिक । अत: जब हमने अपनी सीमाएँ निर्धारित करने का अधिकार दूसरे को दे देते हैं तो अंजाने मे ही नियमो के गुलाम हो जाते हैं । सीधी और सच्ची बात ये हैं कि अच्छा चावल चुनियेगा तो अच्छा भात खाईयेगा ।


नियमो को ध्यान मे रखते हुए मैने अपनी एक कविता मे कहा है कि

"   नियम कोई भी हो लेकिन
    
हमें  हैं  बाँध  कर  रखता ।
    
भले चुन रक्खा हो खुद ने
    
या  कोई   थोप  है  देता ॥  "

अपने देश के सम्बन्ध में कहूँ तो हम काफी पहले यानी 1857 के गदर के कुछ पहले ही स्वछन्द हो गये जब हमने देश मे अंग्रेजो की शासन व्यस्था को नकार कर शासनादेश मानने से इंकार कर दिया था । फिर 1947 , 15 अगस्त का दिन आया जब हम स्वतन्त्र  हो गये । हम अब अपने देश की दशा और दिशा चुनने के लिये स्वतंत्र हो गये । अपने देश को किस प्रकार चलाना है ये चुनने मे हमने दो ढ़ाई साल और लगाये और 26 जनवरी 1950 को हमने अपने देश मे गणतांत्रिक व्यवस्था अपना ली । अब हमारा देश एक गणतांत्रिक राष्ट्र हैं और हम अब उनके नियमों से बँधे नागरिक । हर नियम हमे कही ना कही अपना गुलाम बनाता हैं । एक समय आने पर हर नियम जो हमारी सुबिधा के लिये होते है हमें ही परेशान करते हैं । पर देश हो या जीवन सुचारू रूप से चलाने के लिये नियमो की आवश्यकता तो होंगी ही । ये  हमारे अनिवार्य अंग हैं । इनका पालन होना चाहिये पर  सामयिक समीक्षा अनिवार्य हैं क्योंकि समय के साथ सभी कुछ परिवर्तित होते रहता है तदनुरूप नियमो मे भी आवश्यक परिवर्तन होते रहना चाहिये । नियमो मे जब रूढ़िता आ जाती है तो हमारी स्वतंत्रता धीरे धीरे खतम होने लगती है और हम परतंत्र हो जाते है । समय के साथ अनुभव, ज्ञान , दूसरों के अनुभवों का समावेश , बुद्धि और विवेक का सम्यक उपयोग अपने जीवन और कार्यक्षेत्र तथा देश मे करते हैं तो नियमों के साथ अपनी स्वतंत्रता ठीक उसी प्रकार सुरक्षित रख पाते है जैसे बत्तीस दाँतों के बीच जीभ अपनी स्वतंत्रता बनाये रखती हैं । लचीलापन वो गुण हैं जिसके सहारे बड़ी बड़ी समस्याओं और बाधाओं का हल आसानी से निकल सकता हैं । कोड़ा बहुत लचीला होता हैं पर उसकी चोट कड़ी लाठी से कहीं अधिक प्रभावकारी होती हैं । बस याद इतना ही रखना है कि बुद्धि और विवेक आपके ढाल भी हैं और ससक्त हथियार भी ।
आशा है मेरी बातों से उबे नही होंगे । शेष बाँतें फिर कभी । नमस्कार ।


          ---------- अश्विनी कुमार तिवारी ( 30.01.2011 )

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